भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भीष्म पर्व भी / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:31, 6 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी |अनुव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चलना तो है ही मुझको, जब
चाहोगे तब ही चल दूँगा;
लेकिन जो रह गया अधूरा
उसको पूरा कर लेने दो।

आज पुनः देवों का भोग-विलासी जीवन
मूल्यहीन, आस्थाविहीन, उत्शृंखल यौवन;
पापाचारों के कारण जल-प्लावन निश्चय
रुके प्रलय यदि हो मनु-श्रद्धा-इड़ा समंजन।

कामायनी पूर्ण कर लूँ-
‘आनंद सर्ग’ भी लिख लेने दो।1।

छोड़राज, बनवासी बन जो घूमा वन-वन
लोक-शक्ति से किया, असुर-अणु-शक्ति-विखंडन;
लौट अयोध्या किया राज, वह राम-राज था
शेष रह गया है करना उसका ही वर्णन।

‘रामचरित मानस’ का ‘उत्तर
काण्ड’-खत्म भी कर लेने दो।2।

जब कर लूँगा महाकाव्य मैं पूरा अपना
जब हो जाएगा मेरा वह पूरा सपना;
छोड़ शूल की सेज, फूल की सेज गहूँगा
रुक जाएगा खुद ही पंच-अग्नि का तपना।

वृहत् ‘महाभारत’ का मुझको
‘भीष्म पर्व’ भी लिख लेने दो।3।

23.5.85