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अंतर में अंगुलिमाल / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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डरता हूँ इसलिए तुम्हारा
वंदन करता हूँ।
डरा प्रकृति से मनुज, प्रार्थना
का बल अपनाया;
डरा देवताओं से तो-
प्रशस्ति-गायन गाया।
डरा ईश से, ईश-वंदना
रच डाली उसने;
‘भय बिन होहि कि प्रीति’ कहा वह
बन तुलसी उसने।
उस परम्परा का ही अब तक
पालन करता हूँ;
डरता हूँ इसलिए तुम्हारा
वंदन करता हूँ।1।

लेकिन उस परम्परा को अब
मुझे बदलना है;
‘भय की प्रीति न श्रेयस्कर’ यह
जग से कहना है।
भय आवश्यक किंतु ‘प्रीति का
भय’ ही प्रेयस है;
निहित उसी में व्यक्ति, समाज
सृष्टि का श्रेयस है।
‘भय बिन होहि की प्रीति’ नीति का
खंडन करता हूँ।
डरता हूँ इसलिए तुम्हारा
वंदन करता हूँ।2।

सोच रहा हूँ-आखिर भय यह
लगता ही क्यों है?
‘ईश्वर-अंश, जीव अविनाशी’
डरता ही क्यों है?
लगा कि अंगुलिमाल छिपा जो
अंतर में मेरे
मन-चंदन को मार कुंडली
अजगर जो घेरे
उस अंगुलीमाल-अजगर से
ही मैं डरता हूँ।
डरता हूँ इसलिए तुम्हारा
वंदन करता हूँ।3।

27.5.85