भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शंख और बाँसुरी (कविता) / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:36, 6 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी |अनुव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोनों पैर कहीं यदि मेरे
साथ-साथ चल पाए होते
भू-मंडल की गोलाई तक
कब का पहुँच गया मैं होता।

एक पैर पूरनमासी की
मरीचिका मेंरहा भटकता;
रहा दूसरा कर्विमनीषी
की साधना-अग्नि पर चलता।

भोग-योग प्रेरक-पोषक बन
साथ-साथ चल पाए होते
आसमान की ऊँचाई तक
कब का पहुँच गया मैं होता।1।

परम्पराओं की पगडंडी
पकड़े रहा एक पग मेरा;
किंतु दूसरा रहा खोजता
नए सूर्य का नया सवेरा।

नए-पुराने पथ के राही
साथ-साथ चल पाये होते
समरसता की गहराई तक
कब का पहुँच गया मैं होता।2।

एक पैर ने राज छोड़ कर
बनवासी जीवन अपनाया;
लेकिन वन से लौट एक ने
अपना राजतिलक करवाया।

राजा का मन, बनवासी मन
साथ-साथ चल पाए होते
राम-राज्य की अमराई तक
कब का पहुँच गया मैं होता।3।

तीनों लोक घूम आने की
रही जनम से ही अभिलाषा;
पीने तीनों का संगम-जल
मेरे कवि की रही पिपासा।

मन का नारद, तन की वीणा
साथ-साथ चल पाए होते
एक विश्व की अगुआई तक
कब का पहुँच गया मैं होता।4।

एक पैर से खड़ा विश्व को
मैं बाँसुरी सुनाता आया;
युद्ध-क्षेत्र में किंतु दूसरे
से मैं शंख बजाता आया।

शंख-बाँसुरी के स्वर दोनों
साथ-साथ बज पाए होते
नूतन युग की शहनाई तक
कब का पहुँच गया मैं होता।5।