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आदमी जब तक / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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हर बरस दीये जलाते आ रहे
पर अँधेरे को मिटा पाए न हम;
अर्थ क्या दीये जलाने का रहा
यह समझ गए अभी शायद न हम।

बात यों है-आदमी जब तक स्वयं
दीप बन कर जगमगाएगा नहीं;
तब तलक लाखों-करोड़ों इन दीयों
से अँधेरा भाग पाएगा नहीं।

इसलिए हर मनुज ही बन कर दीया
स्नेह में बाती डुबो मन की जले
तब कहीं जाकर अँधेरे से हमें
जगमगाता पथ उजाले का मिले।

12.10.90