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कन्याकुमारी का समुद्र / तरुण

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प्राण की सौ-सौ उछालों की पटलियों से तरंगित-
नील-जरतारी पहनकर रेशमी लहँगा,
ठुमक कर नाचती यह सिन्धु-कन्या
इस विजन में!
साँस में है अमर नील विषाद,
चरण में है मधुर किंकिणि-नाद;
चल रहे हैं वन्दना के स्वर सुगन्धित;
भुज-लताएँ मृदुलतम लहरा रही हैं।
हाथ में सन्ध्या-उषा के ज्वलित कुंकुम-थाल,
स्वप्न-विजड़ित कर्णचुम्बी पलक मंदिर विशाल!

रूप का बल न सह पायेगी
सुकोमल कंचना काया-
कि जिसमें ज्वार का जोबन का-
बिना तिथि-वार भर आया!

1963