भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

थक के चूर हो गए आईने / विजय किशोर मानव

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:42, 20 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय किशोर मानव |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

थक के चूर हो गए आईने
कोई आया नहीं सामने

उनको सातों समंदर दिए,
इनको प्यासी नदी राम ने

गांव-भर में अंधेरा किया
धूप पर मेरे इल्ज़ाम ने

हाथ बांधे खड़े हैं अदीब,
बोलियां लग रहीं सामने

लड़खड़़ाते हैं सारे चलन,
आंधियां आ रहीं थामने