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अकड़ गई गरदन सर्दी से, कहने को है ऊँचा सर / विजय किशोर मानव
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राम जाने हुआ क्या है इस शहर को
अमृत का दर्जा मिला है हर ज़हर को
गर्म होता ही नहीं सूरज यहां अब,
बर्फ़ ने ऐसा कसा है दोपहर को
मंुह चिढ़ाते खिलखिलाते फूल काग़ज़ के
काठ मारा है हिना को, गुलमुहर को
आग है, लेकिन धुएं में रोशनी गुम
घुप अंधेरा बांध लेता है नज़र को
पानी बनकर आग बहती है नदी में
छोड़ देता है किनारा तक लहर को