भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्या तुम बताओगी? / हरिपाल त्यागी
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:00, 21 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिपाल त्यागी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कंधे पर टिका हुआ
ट्रंक मन भर का,
बिस्तर भी भारी है
पीठ पर बंधा हुआ।
सामने से आ रहा
गोरखा सैनिक एक।
पसीने से तर-ब-तर
हांफता-झपटता हुआ।
गुमखाल उतरा था
मिली न आखिरी बस
लैंस डाउन जाने का
पूछ रहा शॉर्ट कट।
नया-नया आया है,
उसे नहीं मालूम-
(दिल्ली नहीं है यह)
मंजिल तक पहुंचने का
यहां न कोई बैक डोर,
यहां न कोई शॉर्ट कट!
आओ पुल पर चलें
आओ, पुल पर चलें
वहीं से देख पाएंगे
टुनटुनिया पहाड़,
पत्थरों की संगीत-सभा,
पीछे मुड़ देखेंगे पूरा शहर एक साथ,
सामने बांदा का किला,
पुल पार ऊंचे एक टीले पर जुटे
मटमैले बच्चों से घर-
परस्पर सहारे पर टिके हुए,
धरे एक-दूसरे के कंधे पर खपरैली सिर
घाटी में झांकता हुआ गांव,
निर्वसन, श्यामा नदी केन
चुपचाप लेटी है बेखबर
आओ, पुल पर चलें।