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आदमी ज़िन्दा रहे किस आस पर / दरवेश भारती

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आदमी ज़िन्दा रहे किस आस पर
छा रहा हो जब तमस विश्वास पर

भर न पाये गर्मजोशी से ख़याल
इसक़दर पाला पड़ा एहसास पर

वेदनाएँ दस्तकें देने लगें
इतना मत इतराइये उल्लास पर

जो हो खुद फैला रहा घर-घर इसे
पायेगा क़ाबू वो क्या सन्त्रास पर

नासमझ था ,देखा सागर की तरफ़
जब न संयम रख सका वो प्यास पर

सत्य का पंछी भरेगा क्या उड़ान
पहरुआ हो झूठ जब आवास पर

दुख को भारी पड़ते देखा है कभी
आपने 'दरवेश' हास-उपहास पर