भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरिअर हरिअर लेमुआँ कि हरिअर / अंगिका लोकगीत

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:48, 26 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKLokRachna |रचनाकार=अज्ञात }} {{KKCatAngikaRachna}} <poem> प्रस्तत गीत...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

प्रस्तत गीत उपनयन के समय ‘घिउढारी’ के अवसर पर भी गाया जाता है। मंडप पर घी ढरकने के कारण उससे प्रज्वलित अग्नि का प्रकाश स्वर्ग तक पहुँचने और उसको देखकर वंशवृद्धि का अनुमान करके देवताओं और पितरों के प्रसन्न होने का उल्लेख इस गीत में हुआ है।

हरिअर हरिअर लेमुआँ<ref>नींबू</ref> कि हरिअर जब<ref>जौ; यव;; रबी की एक फसल</ref> केर गाछ<ref>पेड़; पौधा, गाछ</ref>।
एक अचरज हम सुनलाँ, कवन<ref>सुना</ref> बाबा के मँड़बा रे जनेऊ हे॥1॥
मँड़बा चढ़ि बैठथिन कवन बाबा, गेंठी जोड़ी कनियाँ मामा<ref>दादी</ref> हे।
मँड़बाहिं घिअवा<ref>घी</ref> ढरकि<ref>ढुलक गया</ref> गेल, सरगहिं<ref>स्वर्ग में</ref> भय गेल इँजोत<ref>प्रकाश</ref>।
सरग के देब लोक<ref>देवलोक; देवता लोग; पितर लोग</ref> अनंद भेल, आब<ref>अब</ref> बंस बाढ़त हे॥2॥

शब्दार्थ
<references/>