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बसंत-2 / प्रदीप प्रभात
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बसत विश्व मोहनी रंग सिंगार सै जैनेॅ छै।
पीरोॅ-पीरोॅ सरसौं के चुनरी ओढ़नेॅ छै॥
गोरोॅ-गोरोॅ बाँही बाजूवाक शोभै छै।
सोलहोॅ सिंगार लै धरती सजलौ छै॥
दखनाहा महंत आठो आंग सहलाय छै।
सिहरै सौसेॅ देह मोॅन सुगबुगाय छै॥
बसंत नेॅ बहकैलकै हमरोॅ चांन।
खेल-खेल मेॅ चलावै छै नयन बाण॥
नील गगन मेॅ फैललोॅ ई चांन।
जरनतांहा ग्रीष्म नेॅ छिनतै सबरोॅ मुस्कान॥