भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छंद 43 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:42, 29 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

. रोला
(कलहांतरिता, धीरादि और खंडिता आदि का संक्षिप्त वर्णन)

रचि-रचि लीला-कलह, कबहुँ राधा रिस ठानैं।
हरि मनाइ जब चलत, तबै मन मैं दुख आनैं॥
और रूप-रचि कबहुँ, स्याम-सँग राधा बिहरैं।
ताहि जानि बृषभाँनु-सुता, दुख-ठाँनति हियरैं॥

भावार्थ: कबहुँ (कभी) कलह-लीला रचि ‘राधिका’ जी प्राणप्यारे से रिस ठानती हैं और कबहुँ अर्थात् कभी मनमोहन के मनाने पर न मान, पुनः पश्चात्ताप करतीं तथा कबहुँ (कभी) और रूप धारण कर राधा भगवान् के संग विहार करतीं पुनः वृषभानुजा रूप में दुःखित होती हैं; यह कलंक लगाकर कि तुमने अन्य स्त्री से संग किया है।