भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चल खला में कहीं रहा जाए / ध्रुव गुप्त

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:38, 2 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ध्रुव गुप्त |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चल खला में कहीं रहा जाए
चुप कहा जाए, चुप सुना जाए

तू कभी रूह तक भिगा हमको
तू कभी जिस्म में समा जाए

घर से निकले तो दश्त में आए
अब यहां से किधर चला जाए

हादसे हमपे सौ दफ़ा गुज़रे
दिल न टूटा तो क्या किया जाए

अक्स सबका छिपाए बैठा है
ख़ुद को देखे तो आईना जाए

अपने जीते जी फ़ैसला न हुआ
ज़िन्दगी किस तरह जिया जाए

सिर्फ़ तुमसे हमें जो कहना था
सिर्फ़ तुमसे नहीं कहा जाए

न बनाओ तो तोड़ दो आकर
कुछ करो अब नहीं सहा जाए

न देवता, न फरिश्तों जैसा
आज ख़ुद सा चलो हुआ जाए