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एक भटकी सदा सा रहता हूं / ध्रुव गुप्त
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एक भटकी सदा सा रहता हूं
आजकल बेपता सा रहता हूं
घर मेरे दिल में भी रहा न कभी
घर में मैं भी ज़रा सा रहता हूं
चांद से रोज़ आंख लड़ती है
मैं भी छत पे पड़ा सा रहता हूं
मुझसे पूछो तो मुद्दआ क्या है
मैं जो ख़ुद से खफ़ा सा रहता हूं
तुम गुज़रते नहीं इधर से कभी
रहगुज़र में पड़ा सा रहता हूं
मेरी तलाश कर सको तो करो
इन दिनों मैं हवा सा रहता हूं