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नज़र की बात पहुंचेगी नज़र तक / ध्रुव गुप्त

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नज़र की बात पहुंचेगी नज़र तक
उड़ेगी धूल फिर दीवारों-दर तक

मरे जब हम कोई चर्चा न निकली
मेरे क़ातिल ही पहुंचे थे ख़बर तक

कोई मंज़िल तसव्वुर ही है शायद
सफ़र कोई हो पहुंचेगा सफ़र तक

वो फिर वापस ज़मीं पर लौटती हैं
जो राहें ले के जाती हैं शिखर तक

अभी एक बूंद चुपके से गिरी है
कोई आया था शायद चश्मेतर तक

भले लंबी हो ग़म की रात जितनी
कोई भी रात रहती है सहर तक

हमारे दर से उठ कर देख लेना
कभी वापस नहीं लौटोगे घर तक