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फ़िज़ा में तल्खियां रही होंगी / ध्रुव गुप्त

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फ़िज़ा में तल्खियां रही होंगी
फिर कहां तितलियां रही होंगी

रूह में गूंजती रही अब तक
कितनी खामोशियां रही होंगी

रात भर आप जो आंखों में रहे
नींद जाने कहां रही होगी

मुद्दतों से कहीं नहीं पहुंची
रेत में कश्तियां रही होंगी

आंख में अश्क देखने वालों
दिल में नदियां रवां रही होंगी

हम ही जीते जी मुख़ातिब न हुए
ज़िन्दगी की ज़ुबां रही होगी