भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गीत / व्यथित
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:40, 14 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भवप्रीतानन्द ओझा |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बरसि गेलै बदरा मोरे अंगना
कि बनी गेलै अंगना गंगा-जमुना।
रसें-रसें बरसै रसलॅ बुन्दरिया,
तीती गेलै लॅत-गात भिजलै चुनरिया,
बिसरि गेलै सुरता उगलै सपना।
रोपलॅ जुआय गेलै नेनुआ अँचरबा,
रही-रही बिरथा फड़कै अँचरबा
अटकि गेलै कहवाँ पापी नैना।
बिजली चमकि गेलै भागो चमकलै,
आहट सुनथैं चेहरा दमकलै,
उमगि गेलै सजनी उमगि गेलै सजना।