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सिंहासन हैं चार पदारथ / यतींद्रनाथ राही

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चार पदारथ
चुनकर तो भेजे थे
सेवक
बन बैठे वे सभी प्रशासक
कागज़ पर लिख दिया
ज़िन्दगी जीते हैं
केवल परमारथ

बीजमन्त्र जनतन्त्र हितैषी
हम जनता से
हुए जनार्दन
सौंपी थीं पतवारे जिनको
धारा में कर गए विसर्जन
उनके भी
अपने चिन्तन थे
अपने भी थे
उनके स्वारथ
बीज मन्त्र
जनतन्त्र से हुए जनार्दन
सौंपी थी पतवारे जिनको
धारा में कर गए विसर्जन
उनके भी
अपने चिन्तन थे
उनके स्वारथ
बड़ी मूँछवाली चौपालें
चलती हैं शतरंजी चालें
सड़कों से अन्दर
संसद तक
जूते भी
चलते हैं अनथक
गयीं कथाएँ बलिदानों की
त्याग-तपस्या
हुए अकारथ
संविधान
अपने हित वाले
धुन्धे तो सबके ही काले
बँगला लाल बत्तियों के हित
धर्म-कर्म-ईमान समर्पित
सुख वैभव
सारे मुट्ठी में
सिंहासन हैं चार पदारथ।