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बातें करो मत / यतींद्रनाथ राही
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वंचना है
कल नए दिनमान की
बातें करो मत!
महक रिश्तों में कहाँ है
काग़ज़ी हैं फूल सारे
एक माया जाल में
उलझे हुए पंछी विचारे
क्या करें ये डालियाँ ही
नीड़ अपने छल रही हैं
स्वप्न निद्रा है
किसी उद्गान की
बातें करो मत।
झूठ-सच अच्छे-बुरे का
कौन जाने भेद कैसा
आदमी के आकलन की
है कसौटी सिर्फ पैसा
दौड़ है अन्धी, न जाने
और कितना दौड़ना है
क्या वरण करना पड़ेगा
और क्या क्या छोड़ना है
बंचकों की हाट हैं
प्रतिदान की
बातें करो मत!
चरण पर किसके
धरें सिर
मूर्तियाँ तो सभी खण्डित
ग्रहण शापित लग रहे हैं
ये विमल आभाविमंडित
पतन के इस गर्त में भी
तान कर सीना खड़े हैं
झूमते हैं जो मुकुट धर
पाप के माणिक जड़े हैं
चेतना के मृतक्शणों में
ज्ञान की
बातें करो मत।