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स्वर्ण होते रहे गल कर / यतींद्रनाथ राही

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जब तराशा
हुए हीरा
स्वर्ण होते रहे गलकर

कालिखें धुलती नहीं
सौबार गंगा में नहाए
व्यर्थ है पूजा-भजन यह
व्यर्थ हैं ये प्रार्थनाएँ
राम की गाथा कही
या कृष्ण की लीला बखानी
हर कथा,
कुछ कर्म का
संकल्प धरने की कहानी
लेग बहते हैं
समय की धार के संग हाथ बाँधे
आदमी वह है
समय की धार को धर दे
बदलकर!

मेघ कितने ही घिरें
बरसें, चले जाएँ कहीं
प्यास धरती की
पसीने के बिना बुझती नहीं
भाग्य की अपनी लकीरें
हम स्वयं रचते मिटाते
पर्वतों की छातियों को
चीर कर गंगा बहाते
रत्न सागर से निकाले
दे दिया अमरत्व जग को
सिन्धु निस्सीमित विवश था
आँजुरी में कभी ढलकर।

हाथ जोड़े
आशिशें यो माँगते/बैठे रहो मत
सामने कुरुक्षेत्र है
यों मोह में उलझे रहो मत
मंज़िले खुद चूमलेती
पाँव जो चलते हुए है।
हौसलों ने ही सदा
ऊँचे शिखर बढ़कर छुए हैं
शक्तियाँ सारी
झुकाकर शीश मंगलघट धरेंगी
चेतना के सुप्त हिमनद
चल पड़ेंगे जब पिघलकर।