भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हक की आवाज़ / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:10, 20 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पद्मजा शर्मा |अनुवादक= |संग्रह=ज़...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पुरुष स्त्री को कुचलना जानता है
मसलना रगडऩा फेंकना जानता है
वह कहाँ जानता है प्रेम करना
और सुनना उसके हक की आवाज़
कोई तुम्हें आवाज़ दे न दे स्त्री
आज कोई तुम्हारी सुने न सुने
पर तुम देती रहना आवाज़
सुनाती रहना अपना सच इसको उसको सब को
तुम्हें नहीं मालूम
कि इस ब्रह्माण्ड में कहीं न कहीं टंगी रहेगी
अटकी रहेगी तुम्हारी विद्रोही आवाज़
उसकी सच्चाई उसकी तुर्शी उसकी उत्कटता
तुम पर हुई ज्य़ादतियाँ
कोई न कोई कभी न कभी सुनेगा-समझेगा ज़रूर
और फिर उसकी पुकार भी शरीक हो जाएगी तुम्हारी पुकार में
यह आवाज़ सच्चाई की है
अपने हक की आवाज़ है
बढ़ रहा है कारवाँ
कोई रोक नहीं पायेगा
जब तक सपना समता का
पूरा नहीं हो जायेगा