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खुद से हारे मगर पिता / जय चक्रवर्ती
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दुनिया-भर से जीते
खुद से हारे मगर पिता
सफर पाँव में और
आँख मे
सपनों की नगरी
छाती पर संसार
शीश पर
रिश्तों की गठरी
घर की खातिर बेघर भटके
सारी उमर पिता
जिनको रचने मे
जीवन का
सब कुछ होम दिया
कदम-कदम
उन निर्मितियों ने
छलनी हृदय किया
किसे दिखाते टुकड़े-टुकड़े
अपना जिगर पिता!
बोये थे जो
उम्मीदों के बीज
नहीं जन्में
क्या जानें, क्या था
बेटा-बेटी
सबके मन में
कहाँ-कहाँ, किस-किस
आखिर रखते नज़र पिता!