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जाने कब संझा आ जाये / कुमार रवींद्र

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पता नहीं
कब ऋतु ढल जाये
आओ, सजनी, फागुन हो लें
 
इधर क्षितिज पर
नया उगा जो सूरज है यह
उसे सहेजें
कल जो होगा
उसे नेह की पाती भेजें
 
जाने कब
संझा आ जाये
बंद द्वार मन के सब खोलें
 
याद करो
जब पहली बार
हुए थे हम दोनों ऋतुपाखी
हमने भी मिठास साँसों की
हर पल चाखी
 
जो बाँचे थे
नेहमन्त्र तब
आओ, सजनी, फिर से बोलें
 
भीतर
जब फागुन होते हैं
देह तभी होती वृंदावन
भर जाती है साँस-साँस में
मीठी महकन
 
छोह-मोह का
जो अमरित है
आओ, उससे आँख भिगो लें