भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चलो सजनी / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:38, 30 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=आ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हिन्दी शब्दों के अर्थ उपलब्ध हैं। शब्द पर डबल क्लिक करें। अन्य शब्दों पर कार्य जारी है।
चलो, सजनी
इस अधूरे आखिरी दिन को
यहीं पर हम सिराएँ
थक चुके हम
धूप भी है थकी-हारी
हुई बोझिल
साँस भी तो है हमारी
पूर्व इसके
घुप अँधेरे हों नदी पर
घाट पर दीये जलाएँ
सूर्य-रथ भी
रक्त में, देखो, नहाया
आयने में अक्स भी
लगता पराया
हो रहीं अंधी
इधर,देखो, हमारी
देह की आदिम गुफाएँ
राख झरती
फूल की पगडंडियों पर
यह समय है कठिन -
सूखे नेह-पोखर
आयेगा जो कल
उसे दें, सुनो, सजनी
साँझ-बिरिया की दुआएँ