भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
साँझ ढल चुकी / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:56, 30 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=आ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
साँझ ढल चुकी
आओ...
चलो टहलकर आते हें, सजनी
बोर हुए बैठे-बैठे
कमरे के अंदर
चलो, देखकर आते हैं
क्या करता सागर
उसके
नभ-धरती
दोनों से गहरे नाते हैं, सजनी
चाँद-लहर के खेले
होते होंगे उस पर
हँसते होंगे टापू
उनके खेल देखकर
इसी समय तो
जल-देवा
तट पर आ जाते हैं, सजनी
सीपी-शंख और घोंघे
बीनेंगे मिलकर
साथ लिखेंगे रेती पर हम
ढाई आखर
दोहरायेंगे गान
जिन्हें
जलपाखी गाते हैं, सजनी