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मेघा बरसे सखी, रात भर / कुमार रवींद्र
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मेघा बरसे
सखी, रात भर
अब है धूप निकलने वाली
सोनबरन होंगी बूँदें सब
जो चंपा से झरीं लॉन पर
इन्द्रधनुष होने को आतुर
नये गीत का आखर-आखर
देखो पूरब की
खिड़की पर
छाने लगी सुबह की लाली
कंधे पर आकाश उठाये
खड़ा उधर है बूढ़ा बरगद
बजा बिगुल है -
लगता करती
है परेड ग्राउंड में गारद
अरे, उधर तो देखो
छत पर
दीपशिखा हे किसने बाली
पच्छिम में जो घटा सुरमई
उसमें छिपा इंद्र का धनुआ
वहीं उड़ रहा -
सतरंगी हो रहा
सगुनपाखी का मनुआ
भादों की पूनो
आने को
नहीं रहेंगी रातें काली