भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सदियों से / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:00, 10 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेंद्र गोयल |अनुवादक= |संग्रह=ब...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धरा-सी विशाल कोख
नदियों, महासागरों से ज्यादा दूध
और प्रेम फैला हुआ
पाताल से आकाश तक
ब्रह्माण्ड से भी ज्यादा ममता
फिर भी औरतें रोती हैं
पोंछती हैं दूसरों के आँसू
कितने झीने हैं दुख
शायद हवा से भी ज्यादा
साँस लेने भर से ही जाते हैं हिल
करने लगते हैं घाव
रिसने लगता है आँसुओं-सा सफेद लहू
बदलता रहता है सागरों में
और महासागर, आँसुओं में
बढ़ गया है जल का तल
सदियों से रो रही हैं औरतें
कहाँ से कम होगा सागर का खारापन।