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कथनी-करनी / सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

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कविताओं में
लिखती हूँ ख़ूब
हक़ की बात
औरत होने की पीड़ा से
मुक्ति की ख़ातिर
चिड़ियों की उड़ान देखते हुए
सोचती हूँ उड़ जाऊँ
पिंजड़े से फुर्र
अपने अस्तित्व की ख़ातिर

कविताओं से बाहर
मेरी ज़िंदगी के फ़ैसले हैं
दूसरों के हाथ
और मेरी रगों में
संस्कार ऑक्सीजन बन दौड़ रहा है
कर नही पाती
अपनी ही सांसें अपने नाम
अपनों की खुशियों की ख़ातिर

जानती हूँ
आनेवाले समय में
कोई लड़की बिल्कुल मुझ-सी
लिख रही होगी कविता
या जी रही होगी कविता
उसे उसके फ़ैसले सौंप कर
कर सकूंगी थोड़ा-सा पश्चाताप
कविताओं में।