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इस आशा में / कविता भट्ट

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कभी रातों में जुगनूँ सी टिमटिमाती है,
कभी सूरज कभी चंदा कभी तारों में झिलमिलाती है,
है अँधेरों को बहुत गुस्सा इस पर
फिर भी कविता तो हर हाल में मुस्कुराती है।
हमेशा आँचल में काँटे ही आया करते हैं,
और फूलों के होंठों को ओस ही झुलसाती है।
हर बार तुषारापात हुआ नयी पंखुड़ियों पर
फिर भी डाली है कि माली को निहारे जाती है।
आज होगा नहीं तो कल होगा,
कविता के फटे आँचल में भी मखमल होगा,
पत्थरों के कर्कश सीने पर सोती है ये,
इस आशा में कि कभी तो बसन्ती हवाओं का टहल होगा।