प्रेम
एक अनुभूत प्रक्रिया
न रूप न रंग न आकार
फिर भी भासित होना
शायद यही इसे सबसे जुदा बनाता है
ढाई अक्षर में सिमटा सारा संसार
क्या जड़ क्या चेतन
बिना प्रेम के तो
प्रकृति का भी अस्तित्व नहीं
प्रेम का स्पंदन तो चारों दिशाओं में घनीभूत होता
अपनी दिव्यता से आलोकित करता है
फिर भी प्रेम कलंकित होता है
फिर भी प्रेम पर प्रश्नचिन्ह लगता है
आखिर प्रेम का वास्तविक अर्थ क्या है
क्या हम समझ नहीं पाते प्रेम को
या प्रेम सिर्फ अतिश्योक्ति है
जो सिर्फ देह तक ही सीमित है
जब बिना प्रेम के प्रकृति संचालित नहीं होती
तो बिना प्रेम के कैसे आत्मिक मिलन संभव है
जो मानव देह धारण कर
इन्द्रियों के जाल में घिर
हर पल संसारिकता में डूबा हो
उससे कैसे आत्मिक प्रेम की अपेक्षा की जा सकती है
आम मानव के प्रेम की परिणति तो
सिर्फ सैक्स पर ही होती है
या कहिये सैक्स ही वो माध्यम होता है
जिसके बाद प्रेम का जन्म होता है
ये आम मानव की व्यथा होती है
जिस निस्वार्थ प्रेम की अभिलाषा में
वो उम्र भर भटकता है
अपने साथी से ही न निस्वार्थ प्रेम कर पाता है
उसका प्रेम वहां सिर्फ सैक्स पर ही आकर पूर्ण होता है
ये मानवमन की विडंबना है
या कहो
उसकी चारित्रिक विशेषता है
जो उसका प्रेम सैक्स की बुनियाद पर टिका होता है
मगर देखा जाये तो
सैक्स सिर्फ सांसारिक प्रवाह का एक आधार होता है
मानव तो उस सृजन में सिर्फ सहायक होता है
और खुद को सृष्टा मान सैक्स का दुरूपयोग
स्व उपभोग के लिए करना जब शुरू करता है
यहीं से ही उसके जीवन में प्रेम का ह्रास होता है
क्योंकि
प्रेम का अंतिम लक्ष्य सैक्स कभी नहीं हो सकता
ये तो जीवन और सृष्टि के संचालन में
मात्र सहायक की भूमिका निभाता है
ये तो वक्ती जरूरत का एक अवलंबन मात्र होता है
जिसे आम मानव प्रेम की परिणति मान लेता है
जबकि
प्रेम की परिणति तो सिर्फ प्रेम ही हो सकता है
जहाँ प्रेम में प्रेम हुआ जाता है
प्रेम में किसी का होना नहीं
प्रेम में किसी को अपना बनाना नहीं
बल्कि खुद प्रेमस्वरूप हो जाना
बस यही तो प्रेम का वास्तविक स्वरुप होता है
जिसमे सारी क्रियाएं घटित होती हैं
और जो होता है आत्मालाप ही लगता है
बस वो ही तो प्रेम में प्रेम का होना होता है
मगर
आम मानव के लिए विचारबोध
ज़िन्दगी के अंतिम पायदान पर खड़ा होता है
उसके लिए तो प्रेम सिर्फ प्राप्ति का दूसरा नाम है
जिसमे सिर्फ जिस्मों का आदान प्रदान होता है
लेकिन वो प्रेम नहीं होता
वो होता है प्यार
हाँ प्यार
क्योंकि प्यार में सिर्फ़
स्वसुख की प्रक्रिया ही दृष्टिगोचर होती है
जिसमें साथी सिर्फ़ अपना ही सुख चाहता है
जबकि प्रेम सिर्फ़ देना जानता है
और प्यार सिर्फ़ लेना सिर्फ़ अपना सुख
और यही पतली सी लकीर
प्रेम और प्यार के महत्त्व को
एक दूजे से अलग करती है
मगर आज का प्राणी
अपने देहजनित प्यार को ही प्रेम समझता है
और
बेशक उसे ही वो प्रेम की परिणति कहता है
क्योंकि
कुछ अंश तक तो वहां भी प्रेम का
एक अंकुर प्रस्फुटित होता है
तभी कोई दूसरे की तरफ आकर्षित होता है
और अपने जिस्म को दूजे को सौंपा करता है
और उनके लिए तो यही प्रेम का बीजारोपण होता है
अब इसे कोई किस दृष्टि से देखता है
ये उसका नजरिया होता है
क्योंकिउसकी नज़र में
सैक्स भी प्रेम के बिना कहाँ होता है
कुछ अंश तो उसमे भी प्रेम का होता है
और ज्यादातर दुनिया में
आम मानव ही ज्यादा मिलता है
और उसके लिए उस तथाकथित प्रेम का
अन्तिम लक्ष्य तो सिर्फ़ सैक्स ही होता है
जबकि सैक्स में
कहाँ प्रेम निहित होता है
वो तो कोरा रासरंग होता है
वक्ती जरूरत का सामान
आत्मिक प्रेम में सिर्फ़ प्रेम हुआ जाता है
वहाँ ना देह का भान होता है
बस यही फ़र्क होता है
एक आत्मिक प्रेम के लक्ष्य में
और कोरे दैहिक प्रेम में
हाँ जिसे दुनिया प्रेम कहती है
वो तो वास्तव में प्यार होता है
और प्यार की परिणति तो सिर्फ़ सैक्स में होती है मगर प्रेम की नहीं
बस सबसे पहले तो
इसी दृष्टिकोण को समझना होगा
फिर चयन करना होगा
वास्तव में खोज क्या है
और मंज़िल क्या?