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कब से गोरी है घूंघट में / विजय 'अरुण'
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कब से गोरी है घूंघट में
कठिनाई है बहुत उलट में।
हीरा हीरा ही रहता है
ताज में या कूड़ा करकट में।
पी की मूरत मन में उतरी
कुछ तो पाया नींद उचट में।
चेहरे का उपहार बंधा है
सजनी की इस सुंदर लट में।
कभी याद-सी जल उठती है
सीने के सूने मरघट में।
यह अब ज़हर-सा क्या बहता है
गंगा जी के पावन तट में।
'अरुण' जाम से पीने वाला
आज वह क्या ढूंढे तलछट में।