भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक शहर का ज़िन्दा होना / सीमा संगसार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:29, 6 मार्च 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सीमा संगसार |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक शहर
ज़िन्दा होता है
दम खींचते हुए
उन बूढ़े रिक्सेवालों से
जो रखते हैं
पाई–पाई का हिसाब
अपनी साँसों का...
उनके काले मटमैले हाथों में
होता है शहर भर का नक्शा
जिसमे रहते हैं
खेत–खलिहान / नदी–नाले
और उन गलियों के पते
जिन्हें लोग जानते हैं
अपने ही ठिकाने से...
शहर की गलियों और चौराहों के नाम
इनकी हथेलियों पर
खैनी चूने की तरह जमी होती है
जिन्हें ये चुटकियों में भरकर
दबा लेते हैं
मुंह के एक किनारे पर...
एक शहर
सुनसान होता है
जब होती है
हत्याएँ, अपहरण और लूटपाट
भीड़ उग्र से उग्रतर होती जाती है
बंद हो जाती है दुकानें और बाज़ार...
एक शहर
ज़िंदा होता है तब भी
उन रिक्शे की पहियों के घूमने के घुमते रहने से!
कि नहीं हुआ करती है
हत्याएँ
एक रिक्शे वाले की...