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कागज़ ही तो काले करती हो / वंदना गुप्ता

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तोड़ने से पहले तोडना
और जोड़ने से पहले जोड़ना
कोई तुमसे सीखे
कितनी आसान प्रक्रिया है
तुम्हारे लिए

ना जाने कैसी सोच है तुम्हारी
ना जाने कैसे संवेदनहीन होकर जी लेते हो
जहाँ किसी की संवेदनाओं के लिए
कोई जगह नहीं होती
होती है तो सिर्फ़ एक सोच
अर्थ की दृष्टि से
अगर आप में क्षमता है
आर्थिक रूप से कुछ कर पाने की
तब तो आप की कोई जगह है
वर्ना आपका नंबर सबसे आखिरी है

बेशक दूसरे आपको सम्मान देते हों
आपके लेखन के कायल हों
मगर आप के जीवन की
यही सबसे बड़ी त्रासदी होती है
आप अपने ही घर में घायल होती हो
नहीं होता महत्त्व आपका
आपके लेखन का
आपके अपनों की नज़रों में ही
और आसान हो जाता है उनके लिए कहना
क्या करती हो... "कागज़ ही तो काले करती हो"
फिर चाहे बच्चे हों या पति
बेटा हो या बेटी
उनकी सोच यहीं तक सीमित होती है
और वह भी कह जाते हैं
आपका काम इतना ज़रूरी नहीं
पहले हमें करने दो
इतने प्रैक्टिकल हो जाते हैं
कि संवेदनाओं को भूल जाते हैं
उस पल तीर से चुभते शब्दों की
व्याख्या कोई क्या करे
जिन्हें पता ही नहीं चलता
उनके चंद लफ़्ज़ों ने
किसी की इमारत में कितनी दरारें डाल दी हैं
और दिलोदिमाग में हथौड़े से बजते लफ्ज़
जीना दुश्वार करते हैं
और सोचने को मजबूर
क्या सिर्फ़ आर्थिक दृष्टि से सक्षम
स्त्री का कार्य ही स्वीकार्य है
तभी उसके कार्य को प्रथम श्रेणी मिलेगी
जब वह आर्थिक रूप से संपन्न होगी
और उस पल लगता है उसे
शायद किसी हद तक सच ही तो कहा किसी ने
क्या मिल रहा है उसे... कुछ नहीं

क्योंकि
ये वह समाज है
जहाँ अर्थ ही प्रधान है
और स्वान्तः सुखाय का यहाँ कोई महत्त्व नहीं...
शायद इसीलिये
हकीकत की पथरीली जमीनों पर पड़े फफोलों को रिसने की इजाज़त नहीं होती...