तस्वीरें विचारों की
उग आती हैं जंगलों की तरह
और व्यक्त होती हैं
इंसानों की भीड में कमज़ोर क्षणों की तरह
क्षण जो होते हैं
कुछ भोगे हुए
तो कुछ नितांत अजनबी
जंगली घास की तरह
खरपतवार से उग आते हैं
और बिखर जाते हैं मानसपटल पर
कबूतरों के लिए डाले गए दानो की तरह
वहाँ नहीं होता इंसान
वो, जो ज़िन्दगी से लड़ता है
बोझिलताओं को ढोता है
और एक दिन अपनी
विवशताओं और संगदिली
में खामोश हो जाता है
वहाँ होता है वह
जो दूर खड़ा देख रहा होता है
पक्ष और विपक्ष ज़िन्दगी के
साक्षी बनकर
वहाँ वह होता है
जो जिरह कर सकता है खुद से
वहाँ वह होता है
जो कहने की हिम्मत रखता है
सत्य को कसौटी पर परखने की
देख रहा होता है संभावनाएँ
और तंगदिली के जिंदा सबूत
देख रहा होता है असफल होती
हताशाएँ, आकांक्षाएँ और उम्मीदों की झाड़ियाँ
देख रहा होता है
असफल कोशिश का असफल जीवन
कुंठाग्रस्त ज़िन्दगी का कुठाराघात
सह रहा होता है वेदनाओं के चुभते त्रिशूल
सीमाओं का अतिक्रमण न करने की चेतावनी
देख रहा होता है
आलोचनाओं की कंटकाकीर्ण शाखाओ से लिपटा
महत्त्वाकांक्षाओं का कालिया नाग
देख रहा होता है
खुद को पाक साफ़ दिखाता
और दूसरों पर कीचड़ उछालता ज़र्द सफ़ेद पाला
जो तबाह कर देता है खड़ी फसल को
देख रहा होता है
गौरैयों का किसी शाख पर बैठ कर चहचहाना
देख रहा होता है शिकारी का जाल बिछाना
गौरैयों को फुसलाना
जाल में फँसाना
और उम्र भर के लिए
पर कुतर कर पिंजरे में
कैद रहने की जहालत भरी ज़िन्दगी देना
देख रहा होता है
हर मोड़ पर खड़े
शिकारी के अस्त्र शस्त्र
और उनका दुरूपयोग करना
और मूक दर्शक बन जाना
अपने घोंसले को बचाने हेतु
और उससे उपजी
हताशा, वेदना, बेबसी
झंझोड़ देती है उसका अंतर्मन
क्योंकि देख रहा होता है वह
रोज रात्रि की शैया पर
निर्वस्त्र होती संभावनाओं की तारीखों को
जो न बदन उघाड़ सकती हैं
और न ही दिखा सकती हैं
क्योंकि आँचल के तले
होता है उनका अपना ही जिस्म
जो सिसक तो सकता है
मगर शब्दहीन ही रहना चाहता है
क्योंकि खुद को खुद
निर्वस्त्र करना आसान नहीं होता
देख रहा होता है वह
उन फुदकती चिड़ियों का शोर
जो गर कुछ कहने की कोशिश करती हैं
अपने को लहुलुहान करके भी
अपनी आत्मा के वस्त्रों को उतार कर
तो शातिर बाज आ जाता है
उन्ही पर तोहमतों के बवंडर लेकर
वर्चस्व कायम रखने की बेहतरीन
तरकीब का मसीहा बनकर
फिर चाहे खुद ही क्यों न रोज
वो द्विभाषी भाषा का प्रयोग कर जाता हो
मगर अपने वर्चस्व की खातिर
उसकी अस्मिता से खेल खुद को
पाक साफ़ दिखाने की विभत्सता का
नग्न तांडव देख रहा होता है वह
और एक दिन हो जाता है अभिव्यक्त
जो देखा होता है निरपेक्ष बनकर
जो जाना होता है साक्षी बनकर
न्याय की तुला बनकर
आँख पर पट्टी बाँधकर
कर देता है न्याय अपनी अभिव्यक्ति से
बिना कोई हील हुज्जत किये
और हो जाता है कसूरवार... सच कहने का
इतना कटु सत्य
आखिर कहने की हिम्मत कैसे हुयी
अभिव्यक्ति तो सिर्फ़ माध्यम है
प्रशंसा, मान-सम्मान पाने का
न की हकीकत बयान करने का
इतना शातिर सत्य हलक से कैसे उतरेगा
जहाँ पहले ही अपेक्षाओं, चाहतों की फाँस गडी है
कैसे स्वीकारेगा कोई तुम्हारा वस्त्रहीन निर्भीक सत्य को
आखिर साहित्य की भी एक मर्यादा होती है
और लांघने की जुर्रत सिर्फ़ स्थापितों को होती है
और शुरू हो जाती है चरित्र हनन की प्रक्रिया
फिर चाहे उसके लिए स्थापित चेहरे
हर मर्यादा का हनन क्यों न कर दें
फिर चाहे उसके लिए एक जीवित
सम्मानित व्यक्ति के मान और मर्यादा की
धज्जियाँ ही क्यों न उडानी पड़ें
उसके वजूद की चिंदी-चिंदी ही क्यों न करनी पड़े
वो खुद से ही शर्मसार क्यों न होने लगे
देशद्रोही, समाजद्रोही, चरित्रहीन
आदि उपनामों से उसका दोहन क्यों न होने लगे
नहीं फर्क पड़ता विषाक्त समाज के पुरोधाओं को
वर्चस्व की दौड़ में शामिल
नहीं जानते एक आम इंसान और उसकी अभिव्यक्ति के बारे में
नहीं कर पाते उसके वजूद और सोच को जुदा एक दूसरे से
और रख देते हैं आरोपों का पुलिंदा उसके सिर पर
सर झुकाकर जीने के लिए...
अव्यक्त को वयक्त करने की प्रक्रिया में
इंसान और अभिव्यक्ति कराह उठती हैं
विषमताओं के जंगल से
जहाँ
ना इन्सान रह पाता है
ना अभिव्यक्ति साँस ले पाती है
और लहुलुहान वजूद। इस प्रश्नचिन्ह के साथ
सलीब पर लटका खड़ा रहता है... अपने फ़ना होने तक
आखिर क्यों अभिव्यक्ति को इंसान का चरित्र मान लिया जाता है
क्यों नहीं ये स्वीकारा जाता
अभिव्यक्ति साक्ष्य है तमाम स्पर्शों का, स्पंदनों का,
जीवन के उतार-चढ़ावों का, विभत्सतताओं का
अनकही का, अबोलेपन का, वेदना की पराकाष्ठा का
और इंसान
आईना है, माध्यम है, जनक है,
अभिव्यक्ति की सूक्ष्म तरंगों को सही परिप्रेक्ष्य में दर्शाने का
आखिर सोच के मापदंडों के लिए कब सही कसौटियाँ बनेंगी
जहाँ खरा सोना खरा दाम पा सके...
देश, समाज, मानव के हित के लिए और ऐतिहासिक दस्तावेज बनने के लिए
एक चिंतन ज़रूरी है इस दिशा में भी?