भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दृश्य: वर्षा / शैलजा सक्सेना
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:48, 5 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलजा सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आज धूप की मुठ्ठी बाँधे
सूरज बादल पीछे दुबका,
और हवा की बन आई है
घर-घर जा कर चुगली करती।
सूरज व्याकुल देख रहा है
पर बादल का परदा भारी,
उस पर बरखा बरस-बरस कर,
तड़-तड़ धरती से बतियाती।
रामू झुग्गी भीतर भीगे,
मुनिया थर-थर काँप रही है
ताप चढ़ा मुनिया की माँ को
चूल्हा तक जलना भारी है।
मुन्ना बुड़-बुड़ बोल रहा है
सूरज ताप दिखाने आओ,
आसमान में जगमग हो कर,
तकिया-बिस्तर आन सुखाओ॥