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माँ / भाग ७ / मुनव्वर राना

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मेरा बचपन था मेरा घर था खिलौने थे मेरे

सर पे माँ बाप का साया भी ग़ज़ल जैसा था


मुक़द्दस मुस्कुराहट माँ के होंठों पर लरज़ती है

किसी बच्चे का जब पहला सिपारा ख़त्म होता है


मैं वो मेले में भटकता हुआ इक बच्चा हूँ

जिसके माँ बाप को रोते हुए मर जाना है


मिलता—जुलता हैं सभी माँओं से माँ का चेहरा

गुरूद्वारे की भी दीवार न गिरने पाये


मैंने कल शब चाहतों की सब किताबें फाड़ दीं

सिर्फ़ इक काग़ज़ पे लिक्खा लफ़्ज़—ए—माँ रहने दिया


घेर लेने को मुझे जब भी बलाएँ आ गईं

ढाल बन कर सामने माँ की दुआएँ आ गईं


मैदान छोड़ देने स्र मैं बच तो जाऊँगा

लेकिन जो ये ख़बर मेरी माँ तक पहुँच गई


‘मुनव्वर’! माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना

जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती


मिट्टी लिपट—लिपट गई पैरों से इसलिए

तैयार हो के भी कभी हिजरत न कर सके


मुफ़्लिसी ! बच्चे को रोने नहीं देना वरना

एक आँसू भरे बाज़ार को खा जाएगा