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कन्याकुमारी का समुद्र / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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प्राण की सौ-सौ उछालों की पटलियों से तरंगित-
नील जरतारी पहन कर रेशमी लहँगा,
ठुमक कर नाचती यह
सिन्धु-कन्या इस विजन में!

साँस में है अमर नील विषाद,
चरण में है मधुर किंकिणि-नाद;
चल रहे हैं वन्दना के स्वर सुगन्धित;
भुज-लताएँ मृदुलतम लहरा रही हैं।
हाथ में सन्ध्या-उषा के ज्वलित कुंकुम-थाल,
स्वप्न-विजड़ित कर्णचुम्बी पलक मदिर विशाल!

रूप का बल सह न पायेगी
सुकोमल कंचना काया-
कि जिसमें ज्वार जोबन का-
बिना तिथि-वार भर आया!

पहले इनकी सुन लो
(अपने लॉन में फूल-फुलड़ियों की रंग-बिरंगी क्यारियों को देखकर)

जरा पहले इनकी सुन लो!
इनकी भी सुन लो-
पीछे से
मेरा पल्ला पकड़ कर,
राल-टपकाते से,
सतृष्ण नेत्रों से अपने कंधे पर गर्दन लटका-
सुबह-साँझ
अपनी बाँहे फैला मुझे पुकारते हैं जो,
मुझे निहारते हैं जो,-
ज़रा पहले इनकी सुन लो!

गन्धक, अग्नि, कण्टक-कंकड़, पत्थरों वाली
कठोर धरती को फोड़कर-
ये कोमल, ये सलोने, ये निगोड़े
मेरे लॉन की क्यारियों में
चहचहा, गहगहा, महमहा उठे हैं जो-मेरा पीछा-करते!
फटने को हुए-से कन्धारी दाड़िम-से यौवन वाली,
मांसल-गौर सुपुष्ट वक्षोंजों वाली-
अप्सरियों-सी वयः सन्धिशील मदिर-दृष्टि कन्याओं के
ये!
जरीदार, रंगीन व पारदर्शी!
दीपों की लौ के आकार से,
विवाहित भाल की रंगीन टिकुलियों से-बुँदियोंदार;
होली की पिचकारियों से छुटी धारों फुहारों-से-
ये!
मरकत-सी पत्तियों की गोद में उनके काँधे झूमते-
किशमिशी, जाफ़रानी, सोसनी, मोरपंखी, गोमेदकी
रंगों वाले-
ये!

रंगों का दंगा-सा हो गया है, रे-
आज तो यह!
इनमें भीनी गंध समायी है-
मेंहदी-रंजित हथेलियों वाली सुहागिनियों के मदिर-उनींदे
यौवन की!

खामखाह हर समय मेरे काम में
बाधा पहुँचाते हैं-ये,
मानव-संस्कृति के निर्माण में प्रतिपल सजग-सक्रिय-
मैं, -संस्कृति का प्रहरी!
और ये मरे पाँव के रोड़े-से बने रहते हैं-
हर समय!
ये निठल्ले, आवारागर्द,
कितने प्यारे ये कम्बख्त,
और मैं-कितना व्यस्त!