भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं तो यहाँ हूँ (कविता) / रामदरश मिश्र
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:58, 12 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामदरश मिश्र |अनुवादक= |संग्रह=मै...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सभी चले गये थे
मंदिर में अपनी मुरादों के चीथड़े छोड़ कर
मैं अकेले बैठा था प्रभु-मूर्ति के सामने
और बातें कर रहा था सुख-दुख की
लेकिन मूर्ति जड़ बनी रही
ऊब कर मंदिर से बाहर निकला तो देखा-
चारों ओर पुष्पित खेत खिलखिला रहे थे
चहचहाती चिड़ियों का महारास मचा था
हवाएँ खुशबू में नहा रही थीं
और जड़-चेतन की त्वचा पर
स्पंदन की कथा लिख रही थीं
पास बहती हुई नदी में
तरंगों का नर्तन और गान चल रहा था
लगता था-
धरती और आकाश के बीच संवाद हो रहा है
प्रतीत हुआ
जैसे चारों ओर एक आवाज़ गूँज रही है-
”अरे, मैं तो यहाँ हूँ, यहाँ हूँ, यहाँ हूँ“।
-8.11.2014