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गीत-प्रदीप जलाए! / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'
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मैंने गीत-प्रदीप जलाए!
भव-सागर के तीर खड़े हों, काल-तरंगों पर तैराए!
मैंने गीत-प्रदीप जलाए!
इनमें पड़ी नेह की बाती,
ज्वाल-प्राण की स्वर्णिम थाती!
अमर ज्योति जग रही जगाजग, आँधी जिसको बुझा न पाए!
मैंने गीत-प्रदीप जलाए!
तैरा इन्हे, हटा आँचल-पट-
छोड़ चलूँगा मैं तो यह तट!
हिचकोले खाते डोलेंगे, जल पर भरमाए-भरमाए!
मैंने गीत-प्रदीप जलाए!
चिर प्रवाह में आह न जाने-
खों देंगे कब राह न जाने!
कौन प्राण में भर लेगा-जब बिलख उठेंगे कर फैलाए!
मैंने गीत-प्रदीप जलाए!
जाने कैसी लहर उठेगी-
दीपकमाला हहर उठेगी!
किसी गोद में सो जाएँगे, ये नादान-किसी के जाए!
मैंने गीत-प्रदीप जलाए!