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प्रेम: एक कल्पना / सुनीता जैन

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खड़े रहे दोनों ही अपनी-अपनी जगह
वृक्षों से कचनार के,
कासनी रंग में नहाए
बढ़ें नहीं
पास आने,
शब्दों का आश्वासन दे
अपने को दोहराने
पास-पास खड़े, दोनों सहें
वक्त के बदलाव
दिन-दिन काठ होने की व्यथा
जड़ों से कहें

चौंक कर जगें जब-जब सन्नाटे में
टूटे कोई
सूखकर डाल
साथ-साथ
खड़े-खड़े
दोनों ढलें