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सपने कब अपने थे / राजेश शर्मा 'बेक़दरा'

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सपने भी कब अपने थे
नींदों ने गिरवी रखे थे
हर स्वप्न अधूरा दीखता हैं
जब से वो रूठा लगता हैं
आज उनसे बात हुई तो
जग महका महका लगता है
यूँ अचानक उसके आने से
ऐसा क्यों होने लगता हैं

प्रेम छलावा जग में ऐसा
सबको ही ये डसता हैं
कभी प्रेम अगन मे जलता है
कभी छुपके नीर बहाता हैं