भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारा आगमन / जगदीश गुप्त

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:33, 3 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश गुप्त |अनुवादक= |संग्रह=नाव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह — तुम नहीं आए
लगा जैसे सुरभि ने
स्निग्ध प्राणों पर
जुही के, इन्द्रबेला के, कमल के,
ओस भीगे, पारिजाती फूल बरसाए।

पकी झुकती बालियों वाले
गीत गाते लहलहाते खेत की —
सुनसान ऊँची मेड़ पर
श्वेत स्लेटी सारसों के एक जोड़े ने
गेरूई दो गरदनें नीचे झुकाईं — पंख फैलाए।

झुटपुटे में साँझ के चूनर पहन
किसी नत शिर नव वधू ने
अरुण मेंहदी रचे हाथों से जला —
नील यमुना की लहरियों पर
पात में रख — मौन, घी के दीप तैराए।
 
हृदय को, मन को, नयन को
इस तरह भाए।
सच,
बहुत दिन बाद तुम आए।