भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
टूटा शीशा / जगदीश गुप्त
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:54, 3 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश गुप्त |अनुवादक= |संग्रह=नाव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हृदय में तुमको लिए चुप ही रहा, मैंने —
न कुछ सोचा न कुछ मुख से कहा मैंने,
स्नेहवश सब कुछ सहा मैंने,
किन्तु था वह सभी अत्याचार,
तुम समझ बैठे उसे अधिकार —
मेरे मौन रहने से।
था हमारा शुभ्र शीशे की तरह जो पारदर्शी प्यार,
पड़ गई — पड़ती गई उसमें अपार दरार।
जो समर्पण था सहज — वो बन गया सम्भार।
अपशकुन है मीत ! शीशे का दरक जाना।
कभी मानोगे — अगर अब तक नहीं माना।