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हम बिखर गए पारे से / महेश आलोक
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हम बिखर गए पारे-से
किसी तश्तरी में
आखिर कर ही लिया आकाश में सूराख
हमने जाने-अनजाने
अब उस झोपड़ी का क्या करें
जिसके सुख में छिपते थे हम किसी अन्तिम
बारिश के भय से