भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐसे साँचे रहे नहीं अब / नईम

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:02, 14 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पार गए तो पौबारह हैं,
फिसल गए तो फिर हरगंगा।
मूल-सूद से जीम गए ये,
माँगों तो लेते हैं पंगा।

एक आँख से हँसते, दूजी से रो लेते,
शीश काट सिरहाने रखकर ये सो लेते,
पेशेवर उस्ताद सियासी-
करवाते प्रायोजित दंगा।

हाथ थामने को उद्यत, व्रत ही सेवा का,
बेवा सरस्वती हो या क्वाँरी रेवा का;
क़ौमों की खातिर निकले ये-
सिर से बाँधे क़फन तिरंगा।

दिन में ये दिखते, रातों में इनको दिखता,
सरेआम डाके हत्याएँ, कोई थाना रपट न लिखता।
चौबीसो घंटे शिकार पर,
रहते हैं ये बिल्ला-रंगा।