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ऐसे साँचे रहे नहीं अब / नईम
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पार गए तो पौबारह हैं,
फिसल गए तो फिर हरगंगा।
मूल-सूद से जीम गए ये,
माँगों तो लेते हैं पंगा।
एक आँख से हँसते, दूजी से रो लेते,
शीश काट सिरहाने रखकर ये सो लेते,
पेशेवर उस्ताद सियासी-
करवाते प्रायोजित दंगा।
हाथ थामने को उद्यत, व्रत ही सेवा का,
बेवा सरस्वती हो या क्वाँरी रेवा का;
क़ौमों की खातिर निकले ये-
सिर से बाँधे क़फन तिरंगा।
दिन में ये दिखते, रातों में इनको दिखता,
सरेआम डाके हत्याएँ, कोई थाना रपट न लिखता।
चौबीसो घंटे शिकार पर,
रहते हैं ये बिल्ला-रंगा।