मुझे दो सुनने अन्तर्गान / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
मुझे दो सुनने अन्तर्गान,
मधुरतम सरगम के सन्धान।
दीप की उस लौ में सन्दीप्त,
जलन जिसका जीवन-संगीत,
अन्ध तम से जो परे अतीत,
निरन्तर करती ज्योति-प्रदान।
चमकती चपला में छविमान,
ध्वनित करती जो अभिनव तान,
एक सुर का गोपन व्याख्यान,
गगन की वीणा में सुनसानं
तरंगित सरिता में गतिमान,
दीर्ण कर जो गिरि-शृंग-वितान,
हुलस जाती होने लयमान,
सिन्धु में महाआयतनवान।
सुगन्धित सुमनों में सानन्द,
एक छवि का रच मनहर छन्द,
लुटाते जो कुंकुम मकरन्द,
भुवन में सुधामयी मुसकान।
सजनि, ऋतु मादिनी
वागीश्वरी: झपताल
सजनि, ऋतु मादिनी;
मन्धमधुदानिनी मधुरपिकानादिनी।
मलय-चदन-सुरभि-स्नात दक्षिण पवन,
कंुज-कानन मगन, नाद-नन्दित गगन,
सांगरागा धरा नयन अभिरामिनी।
लुब्ध मधु-मकरन्द मुखर मधुकर-निकर,
राग-स्वर-शर-विद्ध-निमिष-लव-पल-पहर,
फुल्लमुकुलित लता कनकवर्णांगिनी।
अरुण म´््िजष्ठ द्रुम-शिखर किसलय-ज्वलित,
शोकदीपन विरह-विषम-ज्वरतप्तकृत,
कुसुमज्वालाशिखा दुसहदुखदायिनी।
(15 मार्च, 1974)