भैरवी त्रिताल
गगन में अरुण पराग भरे,
छवि के दल छवि के सरसिज से खिल-खुल कर बिखरे;
जवार जागर के अन्तर्मन-सर में उमड़ पड़े
रंगों के संगीत नींद की पलकों पर उतरे;
गगन में अरुण पराग भरे।
कुम्हलाए निशि की वेणी में तारों के गजरे,
पाते सुमन पवन के चुम्बन, सजन सेज तज रे;
गगन में अरुण पराग भरे।
(20 फरवरी, 1974)