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सिपाह खाना / प्रेमघन

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पता सिपाहिन के डेरन को रह्यो न कतहूँ।
गिरी दलानैं थे निसबत जिनमें वे कबहूँ॥241॥

बिछी रहत जिनमें कतार सों खाट अनेकन।
जिन पै बैठे ऐंठे बाँके रहत बीर गन॥242॥

प्रात समय नित न्हाय जुबक जोधा जित आये।
बटुआ सो दरपनी काढ़ि ककही मन लाये॥243॥

दाढ़ी झारत कोऊ-कोऊ जुलफीन सँवारत।
कोऊ चन्दन घसत बिरचि कोउ तिलक लगावत॥244॥

किते करत कसरत कितने जुरि लरत अखारे।
पीठ लगन को करि विवाद झगरत हठ धारे॥245॥

करत डण्ड कोउ बैठक कोउ मुगदरनि हिलावत।
लेजिम झनकारत कोउ भारी नाल उठावत॥246॥

बाँह करत जुरि कोऊ ताल मारत कोउ ऐंठे।
कहुँ कोउ पंजे करत वीर आसन सों बैठे॥247॥

कहूँ जरठ जन करत पाठ दुर्गा को दै मन।
आगे निज असि धरे किये श्रद्धा सों अरचन॥248॥

कोऊ सुरज-पुरान, कोऊ रामायन, गीता।
पाठ करत कोउ हनुमत-कवच, चटकि जनु चीता॥249॥

बाल भोग कोउ खाय पियत चरनामृत हरषत।
कोऊ करि जलपान मुरेठा ठटि-ठटि बान्हत॥250॥

पहिरि मिरजई पाग पिछौरी अस्त्र धरि।
चलत कचहरी ओर सबै ऐंठे गरूर भरि॥251॥

प्रभु अभिवादन करि बहु जात काज आदेशित।
बैठत किते सभा की शोभा करि परिवर्धित॥252॥