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कजली / 9 / प्रेमघन

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॥साखी बद्ध॥

घिरि घिरिआए बदरा कारे, प्यारे पिय बिन जिय घबराय॥
आह दई! बचिहैं कला कौन बियोगी प्रान।
चहुँ ओरन मोरन लगे अबहीं सों कहरान।
झिल्लीगन झनकारत, मारत बैरी दादुर सोर सुनाय॥
अँधियारी कारी निसा निपट डरारी होय।
बाढ़त बिरह बिथा जुरी जोति जोगिनी जोय।
पी! पी! रटत पपीहा पापी सुनि धुनि धीर धरो नहिं जाय॥
इन्द्र धनुष धनु, बूँद सर बरसावत यह आज।
बरखा ब्याज बनो बधिक मदन चल्यो सजि साज।
सहत न बनत पीर अब आली! कीजै कैसी कौन उपाय॥
चखचौंधी दै चंचला चमकि रही चढ़ि चाव।
करि करवाली काम के करवाली उर धाव।
पिया प्रेमघन सों कहु आली आवैं, मोहिं बचावैं धाय॥19॥